• भाषा में व्यापक संभानाएँ- योगी आदित्यनाथ 

(लखनऊ/VMN) उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान एवं हिन्दी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय,लखनऊ के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित भारतीय भाषा महोत्सव 2020 का उदघाटन समारोह लखनऊ विश्वविद्यालय के मालवीय सभागार में मंत्रोच्चार के साथ संपन्न हुआ। 

इस त्रिदिवसीय भारतीय भाषा महोत्सव कार्यक्रम के मुख्य अतिथि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि गांधी जी ने प्रखरता से हिन्दी को राष्ट्रभाषा की संज्ञा दी थी। मुख्यमंत्री ने ऋग्वेद, रामायण, महाभारत तथा रामचरितमांस जैसी ग्रंथों की चर्चा करते हुए कहा कि भारतीय मनीषा में शब्द को ब्रह्म कहा गया। ब्रह्म सत्य है, इसलिए शाश्वत भी। भाषा को शाश्वत रूप में पहचानना और फिर उसे लोगों के लिए प्रस्तुत करने से साहित्य अमर होता है। उन्होंने कहा कि एक भारत श्रेष्ठ भारत की संकल्पना से सार्थक होगी यदि हम अपनी भाषाओं से ही परहेज करेंगे? मुख्यमंत्री ने भाषा विश्वविद्यालय के स्थापना की परिकल्पना की जहाँ पर सभी भाषाओं का अध्ययन अध्यापन और प्रशिक्षण दिया जाये। उन्होंने भारत वर्ष की हर भाषा को रोजगार का एक बहुत बड़ा माध्यम माना।  हिन्दी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. सूर्य प्रसाद दीक्षित ने अपने बीज वक्तव्य में कहा कि भाषाओं का विघटन या क्षरण साधारण दुर्घटना नहीं अपितु राष्ट्रीय संस्कृति का हास है। इसलिए भाषाओं के बीच पारस्परिक सद्भाव का होना अत्यावश्यक है। हमे स्वभाषा प्रयोग की हीन भावना से दूर होना होगा। इस देश की सभी भगिनी भाषाओं की समस्या एक-सी है इसलिए उन्हें मिलकर काम करना होगा। उन्होंने एक समेकित भारतीय साहित्य की रूपरेखा बनाने का सुझाव दिया। – लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. आलोक कुमार राम ने विश्वविद्यालय के इतिहास और वर्तमान पर प्रकाश डालते हुए विश्वविद्यालय की महत्वपूर्ण उपलब्धियों और भविष्य की योजनाओं पर प्रकाश डाला। उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष डॉ.राजनारायण शुक्ल ने संस्थान के बीते वर्षों के भाषाओं के विकास एवं संवर्धन के क्रम में किये गए भारतीय भाषा संगम जैसे कार्यक्रमों का जिक्र करते हुए एताया कि संस्थान अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए निरंतर सक्रिय है और नित इस प्रकार के भाषायी एकता के कार्यक्रम पूरे भारत में आयोजित कर रहा है। भारतीय भाशा महोत्सव इसी संकल्पना का एक प्रतीक है। संस्थान द्वारा मा0 मुख्यमंत्री महोदय के निर्देशानुसार ही हिन्दी-मराठी भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्य को हिन्दी में अनुवादित कर प्रकाशित किया जा रहा है। संस्थान अपने इन्ही प्रयासों अपने उद्देश्य को पाने में सफलतम प्रयास कर रहा है। – हिन्दुस्तानी अकादमी के अध्यक्ष डॉ.उदय प्रताप सिंह ने गांधी के 150वीं जयंती के अवसर पर अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका के विशेषांक का लोकार्पण मुख्यमंत्री महोदय द्वारा किया गया। । इस अवसर पर त्रिदिवसीय भाषा महोत्सव 2020 के कार्यक्रम की प्रस्तावना प्रो0 पवन अग्रवाल ने प्रस्तुत की। कार्यक्रम का संचालन हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो. योगेंद्र प्रताप सिहं ने किया। धन्यवाद ज्ञापन भाषा विभाग के प्रमुख सचिव श्री जितेंद्र कुमार ने किया। कार्यक्रम में संस्थान निदेशक सुशील कुमार मौर्य, दिनेश कुमार मिश्र, प्रो० प्रेम शंकर तिवारी, प्रो० केडी सिंह, प्रो परशुराम पाल, प्रो श्रुति , प्रो अलका पाण्डेय, प्रो० हेमांशु सेन, राहुल वाजपेयी, सत्यप्रकाश, संतोष कुमार, शुभम, अर्चना, अंजू, प्रियंका, आशीष, हर्ष, रामहेत, ब्रजेश आदि उपस्थित रहे। 

 ”दलित/जनजाति विमर्श” 

डॉ0 कालीचरण स्नेही ने कहा,” मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार परमात्मा रच लेता है, जहॉ ईश्वर स्वंय अवतरित हुआ, वहां समस्याएं पैदा हुईं। पश्चिम में ऐसा नहीं है। स्नेही कहते हैं कि दलित ही दलित का दर्द समझ सकता है। यथा एक स्त्री ही स्त्री के दर्द को समझती है। इसी श्रेणी में डॉ. देवेश कुमार मिश्र ने अपनी बात रखते हुए कहा, ”जब संस्कार बिगड़ जाते हैं तो अपना बच्चा भी बदतमीज हो जाता है। और उन्होंने कहा ब्राह्मण की जाति में खोजा जा सकता है, जो सच में ब्राह्मण होता है, वह दुराचार नहीं करता। 

    सत्र के अध्यक्ष प्रो0 हेमराज मीणा, आगरा जनजातियों के साथ बिताए अपने संस्मरण को बताते हुए कहते हैं, ”भारत के भीतर एक और भारत रहता है, जिसे जनजातीय भारत कहते हैं। ”अपनी बात को आगे बढा़ते हुए कहा, ”जनजातियों की भाषा और संस्कृति विलुप्त हो रही है, उसका संरक्षण होना चाहिए।” प्रो0 मीणा के अनुसार, प्रो0 गणेश देवी ने लोकभाषा सर्वेक्षण ग्रन्थ लिखा, जो ग्रियर्सन के बाद सफल प्रयास है। जनजातियों के लिए और सभी भाषाओं के लिए एक केंद्रिय विश्वविद्यालय होना चाहिए। 

”अन्यान्य विमर्श” 

भारतीय भाषा महोत्सव के प्रथम समानांतर सत्र ” मेरी आवाज सुनो” के अंतर्गत अन्यान्य विमर्श को केन्द्र में रखते हुए वरिष्ठजन विमर्श, पर्यावरण विमर्श, किन्नर विमर्श, दिव्यांग एवं अल्पसंख्यक विमर्श, बाल विमर्श आदि पर व्याख्यान हुआ। 

अल्पसंख्यक एवं दिव्यांग विमर्श पर व्याख्यान देते हुए डॉ0 राजेश पाण्डेय ने कहा,” अल्पसंख्यक विमर्श में राष्ट्र की अस्मिता एवं संस्कृति में देखने की कोशिश नहीं की गई, सिर्फ रोटी, कपड़ा और मकान के तर्ज से देखा गया। वहीं दिव्यांग विमर्श पर बात करते हुए बताया कि दिव्यांग साहित्यकारों का प्राचीन समय जायसी, सूर से लेकर आज तक है। उन्होने बताया कि 1966 में लोकसभा में पहले सांसद जमुना प्रसाद शास्त्री एवं कला, संगीत के क्षेत्र में रवीन्द्र जैन, सुधा चन्दन आदि का योगदान अविस्मरणीय है। उन्होने एक शे’र के माध्यम से इन विमर्शों पर कहा कि कहीं ऐसा तो नहीं 5000 साल पुरानी हमारी संस्कृति को कहीं ये विमर्श टुकडे-टुकडे तो नहीं करना चाहते हैं। डॉ. अनूप वशिष्ठ ने,” हिन्दी गज़़लों में पर्यावरण विमर्श” पर गज़़लों के माध्यम से पर्यावरण पर चिंता जताई। वह कहते हैं कि मनुष्य खाने और कमाने में इतना गिर गया है कि सब कुछ भूल गया। 

            ”प्रदूषित हवा और पानी शहर में, 

            बहुत है कठिन जिंदगानी शहर में।।” 

पेड़ कटते हैं तो सिर्फ पेड़ नहीं, पेड़ के साथ-साथ हमारी संस्कृति भी कटती है। ” बडे पेड़ जब नहीं रहे तो, झूला पडऩा बन्द हो गया।” अन्त गुजारिश की उन्होंने इन शब्दोंं –

” गुजारिश है हवाओं तुमसे, घटाओं को बुला लाओ। 

    मेरी बिटिया बहुत उम्मीद से, पौधे लगाती है।।” 

वरिष्ठ पत्रकार के0 विक्रम राव जी ने किन्नर विमर्श की अस्मिता एवं उनकी समस्याओं पर केन्द्रित व्याख्यान दिया। डॉ0 सुरेन्द्र विक्रम ने ‘बाल विमर्श’ विषय पर अपनी बात रखी। बाल साहित्य पर केन्द्रित पहली पत्रिका 1882-बाल दर्पण है। उन्होने बताया कि निराला रचनावली का आठवॉ भाग सम्पूर्ण बाल साहित्य केन्द्रित है। डॉ0 ब्रजेश श्रीवास्तव ने प्राकृतिक आपदा संबंधी साहित्य पर अपना व्याख्यान दिया। सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो0 आनन्द प्रकाश त्रिपाठी ने किन्नर विमर्श पर अपनी बात रखी। उनकी आत्मकथाओं का जिक्र करते हुए किन्नरों का संघर्षमय जीवन पर दृष्टि डाली। 

 ”स्त्री विमर्श और राष्ट्रीय चेतना” 

   “मेरी आवाज सुनो” इस सत्र की अध्क्षता करते हुए डॉ नीरजा माधव ने कहा कि सामंजस्य ही भारतीय संस्कृति रही है। उन्होंने प्रश्न किया कि जिस पितृसत्ता वाले पुरुष से स्त्री मुक्ति चाहती है उससे तो पूरी समाज मुक्ति चाहता है हम किस पितृसत्ता से मुक्ति चाहते हैं पहले यह देखना होगा। उन्होंने कहा कि यहाँ पर साहित्य में आया हुआ स्त्री विमर्श पश्चिम से आयातित है। क्योंकि भारतीय संस्कृति में तो वेदों से लेकर आज तक के साहित्यकारों ने अपने साहित्य में स्त्री प्रश्न उठाए है।उन्होंने जोर दे कर कहा कि स्त्री मिर्श में राष्ट्रीय सस्याओं की भी चर्चा होनी चाहिए। उसे सिर्फ देह विमर्श तक सीमित न किया जाए। प्रो.रोता चौधरी ने कहा कि स्त्री विमर्श आज के बौद्धिक विमर्श का महत्वपूर्ण हिस्सा है। पुल्लिंगीय पक्षपात से स्त्री मनुष्य न रह कर वस्तु या चीज में परिवर्तित की गई इसे पुन: मनुष्य रूप में लाने का कार्य स्त्री विमर्श ने किया। 

   सुरभि शुक्ला ने समाज में स्त्री दृष्टिकोण के स्वरूपों पर निरंतर चर्चा होती रहनी चाहिए। डॉ.मालती का मानना है कि ममता की गहराई पुरुषों से अधिक स्त्रियों में दिखाई देती है।उनका कहना है कि परिवार संस्था में स्त्री पुरुष दोनों का समन्वय हो व आधुनिकता परम्परा की संस्कृति से जुड़कर चलनी चाहिए। कथाकार रजनी गुप्ता ने मनुष्य के लिए बुनियादी अधिकारों की बात की-निजता,आजादी, आत्मनिर्णय और स्त्रियों के लिए आर्थिक आजादी को जरूरी माना। नई पीढ़ी की लड़कियाँ तेजी से निर्णय ले रही है। आवश्यक्ता है पुरुष आपनी सामन्तवादी व्यवस्था से आगे निकले। सत्र का संचालन डॉ.ममता तिवारी ने किया। कार्यक्रम में प्रो0 रमेश चन्द्र त्रिपाठी, संस्थान निदेशक सुशील कुमार मौर्य, दिनेश कुमार मिश्र, प्रो0 प्रेम शंकर तिवारी, प्रो0 के0डी0 सिंह, प्रो0 परशुराम पाल, प्रो0 श्रुति , प्रो0 अलका पाण्डेय, प्रो0 हेमांशु सेन, राहुल वाजपेयी, सत्यप्रकाश, संतोष कुमार, शुभम, अर्चना, अंजू, प्रियंका, आशीष, हर्ष, रामहेत, ब्रजेश आदि उपस्थित रहे।