स्वामी विवेकानंद के जीवन पर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का गहरा प्रभाव था। भारत में स्वामी विवेकानंद को एक देशभक्त संन्यासी के रूप में जाना जाता है और उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

(RAJAT SAXENA/VMN)

स्वामी विवेकानंद का नाम आते ही सबसे पहले एक बात दिमाग में जरूर आती है। वह बात यह है कि स्वामी विवेकानंद जिस किताब को एक बार पढ़ लेते थे। उसे वह कभी नहीं भूलते थे। इस बात की चर्चा हर किसी की पढ़ाई के दौरान कभी ना कभी जरूर होती ही है। ऐसे में क्या वाकई ये सच है। क्या ऐसा हो सकता है कि कोई कितनी भी मोटी या बड़ी किताब पढ़ ले और उसकी एक-एक लाइन उसे एक बार में याद हो जाए। ऐसा सोचने पर तो सही नहीं लगता है लेकिन विवेकानंद की जीवनी पर आए लेखों को पढ़ने से इसकी असलियत सामने आती है।

एक बार का वाक्या बताते हैं। स्वामी विवेकानंद मेरठ में अपने शिष्यों के साथ थे। उसी दौरान स्वामी अखंडानंद भी वहां आए। वहां पास में एक लाइब्रेरी थी। उस लाइब्रेरी से स्वामी विवेकानंद ने एक किताबें लाने के लिए कहा था। इसके बाद अखंडानंद ने बैंकर, दार्शनिक और राजनीतिज्ञ ‘सर जॉन लबॉक’ की वो किताब लेकर जिसके कई पार्ट थे। यह किताब ऐसी थी जिसे पढ़ने में लोगों को सामान्यतौर पर दो से तीन दिन या इससे भी ज्यादा का समय लग जाता था। लेकिन स्वामी विवेकानंद ने उस किताब को एक दिन में ही पढ़ लिया और उसे लाइब्रेरी में लौटाकर दूसरे पार्ट को लाने के लिए कहा। फिर अखंडानंद लाइब्रेरी से दूसरा पार्ट ले आए। उसे भी एक दिन से पहले ही पढ़कर तीसरा पार्ट मंगवाया। इतनी जल्दी कई पार्ट को पढ़कर लौटाए जाने पर लाइब्रेरियन हैरान रह गया। उस लाइब्रेरियन ने दावा किया कि स्वामी विवेकानंद जी बिना पढ़े ही किताबें लौटा रहे हैं। क्योंकि आजतक कोई एक पार्ट को भी इतने दिनों में खत्म नहीं कर पाया जितने दिनों में इन्होंने कई पार्ट खत्म कर दिए। लाइब्रेरियन के सवालों को सुनकर अखंडानंद लौटे और विवेकानंद को यह जानकारी दी।
इसके बाद स्वामी विवेकानंद खुद ही लाइब्रेरी में पहुंचे। उन्होंने लाइब्रेरियन से कहा कि उनके द्वारा पढ़कर लौटाई गई किताबों से वह कुछ भी कहीं से और किसी पेज से कोई भी सवाल पूछ सकता है। इस पर लाइब्रेरियन थोड़ा हंसने लगा। फिर उसने किताबें उठाई और किसी भी पेज को निकाल सवाल पूछने लगा। उसने कुछ देर में ही दर्जनों पन्नों से सवाल पूछ डाले और स्वामी विवेकानंद ने एक-एक शब्द के साथ उसे पूरी लाइन सुना दी। यह देखकर लाइब्रेरियन दंग रह गया और उसने हार मानते हुए अपनी गलती पर पछतावा करने लगा था। इस तरह स्वामी विवेकानंद ने अपने आध्यात्मिक ज्ञान और सूझबूझ से सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में ज्ञान और दर्शन का परचम लहराया।

विश्व धर्म महासभा सन् 1893

अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व करते हुए जब उन्हें बोलने का अवसर प्राप्त हुआ तब उन्होंने अपने भाषण का संबोधन “मेरे अमेरिकी बहनों एवं भाइयों” के साथ किया था। उनके स्वयंभू संबोधन के इस प्रथम वाक्य में वहां मौजूद सभी लोगों का दिल जीत लिया था। सभा में उपस्थित हर व्यक्ति उन्हें सुनने के लिए लालायित हो उठे थे। विश्व धर्म महासभा में उन्हें 2 मिनट का समय दिया गया था।

“अमेरिकी बहनों और भाइयों”

“आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सब से प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
मैं इस मंच पर से बोलनेवाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया हैं कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैं, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया हैं। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था । ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने महान् जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा हैं। भाईयो, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं।

रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।

“जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।”

यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक हैं, स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत् के प्रति उसकी घोषणा है।

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।

“जो कोई मेरी ओर आता है, चाहे किसी प्रकार से हो, मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।”

साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वह पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये बीभत्स दानवी न होती, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता । पर अब उनका समय आ गया है और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई हैं, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होने वाले सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्युनिनाद सिद्ध हो। (शिकागो धर्म महा सम्मलेन भाषण)

बंगाली कायस्थ परिवार में जन्मे थे विवेकानन्द

महान भारतीय हिंदू सन्यासी व दार्शनिक (जन्म: 12 जनवरी 1863 – मृत्यु: 4 जुलाई 1902) वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। कलकत्ता के एक बंगाली कायस्थ परिवार में जन्मे विवेकानन्द आध्यात्मिकता की ओर झुके हुए थे। वह अपने गुरु रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीवों मे स्वयं परमात्मा का ही अस्तित्व हैं, इसलिए मानव जाति अथेअथ जो मनुष्य दूसरे जरूरतमन्दों की मदद करता है या सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है। रामकृष्ण की मृत्यु के बाद विवेकानन्द ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा की और ब्रिटिश भारत में तत्कालीन स्थितियों का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया। विवेकानन्द ने संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप में हिंदू दर्शन के सिद्धान्तों का प्रसार किया और कई सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का आयोजन किया। भारत में विवेकानन्द को एक देशभक्त सन्यासी के रूप में माना जाता है और उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं। उनका अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था। नरेन्द्र के पिता और उनकी माँ के धार्मिक, प्रगतिशील व तर्कसंगत रवैया ने उनकी सोच और व्यक्तित्व को आकार देने में सहायता की। बचपन से ही नरेन्द्र अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के तो थे ही नटखट भी थे। अपने साथी बच्चों के साथ वे खूब शरारत करते और मौका मिलने पर अपने अध्यापकों के साथ भी शरारत करने से नहीं चूकते थे। उनके घर में नियमपूर्वक रोज पूजा-पाठ होता था धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण माता भुवनेश्वरी देवी को पुराण,रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने का बहुत शौक था। कथावाचक बराबर इनके घर आते रहते थे। नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था। परिवार के धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे होते गये। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा दिखायी देने लगी थी। ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुकता में कभी-कभी वे ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे कि इनके माता-पिता और कथावाचक पण्डित तक चक्कर में पड़ जाते थे।

विवेकानंद की शिक्षा

विवेकानंद की शिक्षा नरेंद्र नाथ की स्कूली शिक्षा 1871 में ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपॉलिटन संस्थान से शुरू हुई थी। 1869 में उन्होंने कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज की प्रवेश परीक्षा में फर्स्ट डिविजन अंक प्राप्त किए थे। स्वामी जी को दर्शन शास्त्र, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य में काफी रुचि थी। स्वामीजी वेद, उपनिषद, भगवद्गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों के अलावा अनेक हिन्दू शास्त्रों में गहन रुचि रखते थे। इन सब का गंभीरता से अध्ययन करते थे। उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षण हासिल किया हुआ था। वह इस प्रशिक्षण में निपुण भी थे। वह नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम व खेलों में सम्मिलित हुआ करते थे। स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय इतिहास का अध्ययन जनरल असेम्बली इंस्टिटूशन से किया था। साल 1881 में उन्होंने ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। साथ में उन्होंने साल 1884 में कला विषय से ग्रेजुएशन की डिग्री पूर्ण की थी। फिर उन्होंने वकालत की पढ़ाई भी की। हालांकि, साल 1884 का समय स्वामी विवेकानंद के लिए बेहद दुखद पूर्ण था क्योंकि इस समय उनके पिता जी की मृत्यु हो गयी थी। पिता की मृत्यु के बाद उनके ऊपर अपने 9 भाइयों-बहनों को संभालने की जिम्मेदारी आ गई थी लेकिन वह इस परिस्थिति से घबराए नहीं बल्कि अडिग रूप से कठिनाइयों का सामना किया। और इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया।
विवेकानंद ने डेविड ह्यूम ( David Hume), इमैनुएल कांट (Immanuel Kant), जोहान गोटलिब फिच (Johann Gottlieb Fichte) बारूक स्पिनोज़ा (Baruch Spinoza), जॉर्ज डब्ल्यू हेजेल (Georg W.Hegel), आर्थर स्कूपइन्हार (Arthur Schopenhauer),ऑगस्ट कॉम्टे ( Auguste Comte), जॉन स्टुअर्ट मिल (John Stuart Mill) और चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) के कामों का अध्ययन किया। उन्होंने स्पेंसर की किताब एजुकेशन का बंगाली में अनुवाद किया। स्वामी जी हर्बट स्पेंसर की किताब से काफी प्रभावित थे। जब वह पश्चिमी दर्शन शास्त्रों का अध्ययन कर रहे थे तब उन्होंने संस्कृत ग्रंथों और बंगाली साहित्यों को भी पढ़ा। महासभा संस्था के प्रिंसिपल विलियम हेस्टो ने लिखा था कि, नरेंद्र वास्तव में एक जीनियस हैं। मैंने काफी विस्तृत और बड़े इलाकों में यात्रा की है लेकिन इनके जैसा प्रतिभाशाली एक भी बालक कहीं नहीं देखा। यहां तक कि जर्मन विश्वविद्यालयों के दार्शनिक छात्रों में भी नहीं है। स्वामी जी को श्रुतिधर (विलक्षण स्मृति वाला व्यक्ति) भी कहा जाता है। स्वामी विवेकानंद की स्मरण शक्ति अद्भुत थी। उन्हें एक बार पढ़ने पर भी पर ही सब कुछ हमेशा के लिए कंठस्थ हो जाता था। इसका श्रेय वह अपने ध्यान योग और ब्रह्मचर्य पालन को देते थे। इसके अलावा बताया जाता है कि विवेकानंद यह कहते थे कि इंद्रिय-नियंत्रण या आत्मबल, अभ्यास और एकाग्रता, ये चार ऐसी चीजें हैं जो हमारे मस्तिष्क को सक्षम बनाती हैं। वह कहते थे कि इंसान अपनी 90 फीसदी सोच की शक्ति को बर्बाद कर देता है। इसलिए यह जरूरी है कि किसी चीज को समझने के लिए उसपर ध्यान लगाना सबसे जरूरी है। वह कहते थे कि हम होते कहीं और हैं लेकिन सोच कुछ और रहे होते हैं। इसी तरह सोचते कुछ और हैं और काम कुछ और करते हैं। इसीलिए स्मरण में दिक्कत आती है।

गुरु के प्रति निष्ठा

गुरु के प्रति निष्ठा नरेंद्र ने एक बार महर्षि देवेन्द्र नाथ से सवाल पूछा था कि ‘क्या आपने ईश्वर को देखा है?’ उनके इस सवाल को सुनकर महर्षि आश्चर्य में पड़ गए थे। उन्होनें इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए स्वामी विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंस के पास जाने की सलाह दी। परमहंस से मिलने के बाद स्वामी जी उनसे इतना प्रभावित हुए कि उन्हें अपना गुरु बना लिया। और उनके मार्ग दर्शन पर आगे बढ़ते चले गए। इस तरह उनके मन में अपने गुरु के प्रति कर्तव्यनिष्ठा और श्रद्धा बढ़ती चली गई। गुरु और शिष्य के बीच का रिश्ता मजबूत होता चला गया। 1885 में रामकृष्ण परमहंस मुंह के कैंसर जैसे असाध्य रोग से पीड़ित थे। तब उनके किसी शिष्य ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता दिखा दी थी। जिसे देख के स्वामी को बहुत बुरा लगा। तब स्वामी जी ने अपने गुरु की सेवा की जिम्मेदारी खुद ले ली थी। गुरुदेव के प्रति प्रेम और सेवाभाव दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास से रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर स्वयं फेंकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा और निः स्वार्थ सेवाभाव से वे गुरुदेव को समझ सके और स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। और आगे चलकर सम्पूर्ण विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक भण्डार का प्रचार प्रसार कर सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा थी। जिसका परिणाम सम्पूर्ण संसार ने देखा था। स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। उनके गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और परिवार की नाजुक हालत व स्वयं के भोजन की चिंता किए बिना वे गुरु की सेवा में लगातार लीन रहे।

रामकृष्ण मठ की स्थापना

रामकृष्ण मठ की स्थापना 16 अगस्त 1886 को रामकृष्ण परमहंस के निधन के बाद स्वामी जी ने वराहनगर में रामकृष्ण संघ की स्थापना की। परंतु बाद में इसका नाम रामकृष्ण मठ कर दिया गया। रामकृष्ण मठ की स्थापना के बाद नरेन्द्र ने मात्र 25 वर्ष की उम्र में ब्रह्मचर्य और त्याग का व्रत लिया और वे नरेन्द्र से स्वामी विवेकानन्द के रूप में जाने जानें लगे।

रामकृष्ण मिशन की स्थापना

1 मई 1897 को स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। इस मिशन का मुख्य उद्देश्य नव भारत के निर्माण और अस्पताल, स्कूल, कॉलेज और साफ-सफाई के क्षेत्र में कदम बढ़ाना था। स्वामी जी साहित्य, दर्शन और इतिहास के विद्धान थे। उन्होंने अपनी प्रतिभा और ज्ञान से सभी को प्रभावित कर दिया था। और वे नौजवानों के लिए आदर्श बन गए थे। साल 1898 में स्वामी जी ने बेलूर मठ की स्थापना की और अन्य दो मठों की ओर स्थापना की। इन मठों के माध्यम से उन्होंने भारतीय जीवन दर्शन को आम जन तक पहुंचाया। उन्होंने अपनी पैदल यात्रा के दौरान अयोध्या, वाराणसी, आगरा, वृन्दावन, अलवर समेत कई जगहों का भ्रमण किया। इस यात्रा के दौरान उन्होंने कई भेदभाव व कुरूतियों का पता कर उन्हें मिटाने के लिए उन्होंने भरभूर प्रयास किया। इस यात्रा के दौरान वे राजाओं के महल में भी रुके और गरीब लोगों की झोपड़ी में भी रुके। 23 दिसंबर 1892 को विवेकानंद कन्याकुमारी पहुंचे थे। यहां पर वे 3 दिन तक एक गंभीर समाधि में रहे। यहां से लौटकर राजस्थान के आबू रोड में अपने गुरुभाई स्वामी ब्रह्मानंद और स्वामी तुर्यानंद से मिले थे। इनसे मुलाकात के बाद अमेरिका जाने का फैसला लिया था।

स्वामी विवेकानन्द की अमेरिका यात्रा

साल 1893 में स्वामी विवेकानंद शिकागो पहुंचे। वहां उन्होंने विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लिया। शिकागो में उनकी कही बात ने पूरी दुनिया में भारत की एक अमिट छाप छोड़ी थी। यूरोप-अमरीका के लोगों के लिए उस समय भारतीय मजाक के पात्र समझे जाते थे। इसलिए विदेशी चाहते थे कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। परंतु एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला। इस दौरान एक जगह पर कई धर्मगुरुओं ने अपनी किताब रखी। वहीं, भारत के धर्म के वर्णन के लिए श्रीमद् भगवत गीता रखी गई थी। जिसका खूब मजाक उड़ाया गया था। लेकिन स्वामी विवेकानंद के आध्यात्मिक ज्ञान से भरे भाषण को सुनकर पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था। उन्हें अपने धर्म के बारे में बताने के लिए सिर्फ दो मिनट का समय दिया गया था। लेकिन उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत इस तरह की जिससे वहां उपस्थित सभी लोग मंत्रमुग्ध हो गए थे। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत कुछ इस तरह की थी – मेरे अमरीकी बहनों और भाइयों! आपने जिस सम्मान, सौहार्द और स्नेह-प्रेम के साथ हम लोगों का स्वागत किया है, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्षोउल्लास से पूर्ण हो रहा है। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन सभ्यता की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। सभी धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ। सभी सम्प्रदायों एवं मतों के हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ। फिर स्वामी विवेकानंद ने धर्म की परिभाषा दी थी। जिसके बारे में उन्होंने एक श्लोक सुनाते हुए कहा था कि जिस तरह से विभिन्न नदियां अलग-अलग स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार अलग-अलग धर्म और अंत में एक ही धर्म में आकर मिलते हैं। जिसे हम भगवान कहते हैं।

स्वामी विवेकानद की मृत्यु

साल 1899 में अमेरिका से लौटते समय स्वामी विवेकानंद जी बीमार हो गए थे। वह लगभग 3 साल तक बीमारियों से लड़ते रहे। उस समय तक स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्धि विश्व भर में हो चुकी थी। कहते हैं कि अपनी जिंदगी के आखिरी दिन यानी 4 जुलाई 1902 को भी उन्होंने अपना ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला। रोजाना की तरह सुबह दो तीन घंटे तक उन्होंने ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही महासमाधि ले ली था। बेलूर में गंगा तट पर चंदन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गई थी। जहां इनकी अंत्योष्टि हुई थी उसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का 16 वर्ष पहले अंतिम संस्कार हुआ था।

स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त

१. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास हो सके।
२. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के चरित्र का निर्माण हो, मन का विकास हो, बुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भर बने।
३. बालक एवं बालिकाओं दोनों को समान शिक्षा देनी चाहिए।
४. धार्मिक शिक्षा, पुस्तकों द्वारा न देकर आचरण एवं संस्कारों द्वारा देनी चाहिए।
५. पाठ्यक्रम में लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों को स्थान देना चाहिए।
६. शिक्षा, गुरू गृह में प्राप्त की जा सकती है।
७. शिक्षक एवं छात्र का सम्बन्ध अधिक से अधिक निकट का होना चाहिए।
८. सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया जान चाहिये।
९. देश की आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाय।
१०. मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू करनी चाहिए।
११. शिक्षा ऐसी हो जो सीखने वाले को जीवन संघर्ष से लड़ने की शक्ती दे।
१२. स्वामी विवेकानंद के अनुसार व्यक्ति को अपनी रूचि को महत्व देना चाहिए

स्वामी विवेकानंद के अनमोल वचन

  • उठो जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता।

  • हर आत्मा ईश्वर से जुड़ी है, करना ये है कि हम इसकी दिव्यता को पहचाने अपने आप को अंदर या बाहर से सुधारकर। कर्म, पूजा, अंतर मन या जीवन दर्शन इनमें से किसी एक या सब से ऐसा किया जा सकता है और फिर अपने आपको खोल दें। यही सभी धर्मो का सारांश है। मंदिर, परंपराएं , किताबें या पढ़ाई ये सब इससे कम महत्वपूर्ण है।

  • एक विचार लें और इसे ही अपनी जिंदगी का एकमात्र विचार बना लें। इसी विचार के बारे में सोचे, सपना देखे और इसी विचार पर जिएं। आपके मस्तिष्क , दिमाग और रगों में यही एक विचार भर जाए। यही सफलता का रास्ता है। इसी तरह से बड़े बड़े आध्यात्मिक धर्म पुरुष बनते हैं।

  • एक समय में एक काम करो और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमे डाल दो और बाकि सब कुछ भूल जाओ।

  • पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है फिर विरोध होता है और फिर उसे स्वीकार लिया जाता है।

  • एक अच्छे चरित्र का निर्माण हजारो बार ठोकर खाने के बाद ही होता है।

  • खुद को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है।

  • सत्य को हजार तरीकों से बताया जा सकता है, फिर भी वह एक सत्य ही होगा।

  • बाहरी स्वभाव केवल अंदरूनी स्वभाव का बड़ा रूप है।

  • विश्व एक विशाल व्यायामशाला है जहाँ हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं।

  • शक्ति जीवन है, निर्बलता मृत्यु है। विस्तार जीवन है, संकुचन मृत्यु है। प्रेम जीवन है, द्वेष मृत्यु है।

  • जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते।

  • जो कुछ भी तुमको कमजोर बनाता है – शारीरिक, बौद्धिक या मानसिक उसे जहर की तरह त्याग दो।

  • विवेकानंद ने कहा था – चिंतन करो, चिंता नहीं, नए विचारों को जन्म दो।

  • हम जो बोते हैं वो काटते हैं। हम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हैं।